हिमाचल प्रदेश : ‘सच्चाई एक अभिशाप’-‘जहर घोलता स्कूलों’ में ‘जातिवाद का पाप’

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शिमला, 5 मार्च : हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में करीब-करीब सभी सरकारी स्कूलों में जातिगत भेदभाव एक ऐसी सच्चाई है जो विद्यार्थियों के मध्यान्ह भोजन में कड़वाहट घोलती रहती है। 

हिमाचल में साक्षरता की दर 82.8 फीसदी है। यहां निचली जाति के बच्चों को स्कूलों की करीब-करीब सभी गतिविधियों में सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसमें मध्यान्ह भोजन (मिड डे मील) भी शामिल है। राज्य के पंद्रह हजार से अधिक सरकारी स्कूलों में रसोइये आम तौर से सवर्ण जाति के ही हैं।

हाल ही में कुल्लू जिले का एक स्कूल उस वक्त चर्चा में आया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम के सीधा प्रसारण के दौरान दलित विद्यार्थियों को अलग से बैठाया गया था।

सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह अपनेआप में कोई अकेली घटना नहीं है।

उनका कहना है कि भले ही देश में 1955 में ही जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगा दिया गया हो, लेकिन सदियों पुराने भेदभाव का यह संस्कार करीब-करीब सभी ग्रामीण स्कूलों में पाए जाते हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता कुलदीप वर्मा ने कहा कि स्कूलों में बच्चों को मिलने वाले मध्यान्ह भोजन को परोसे जाने में भेदभाव राज्य में आम बात है। यह समस्या खासकर बेहद पिछड़े सिरमौर जिले के ट्रांस गिरी क्षेत्रों में है।

समाजसेवी संगठन पीपुल्स एक्शन फार पीपुल इन नीड (पीएपीएन) चलाने वाले वर्मा ने आईएएनएस से कहा, “ट्रांस गिरी क्षेत्र के किसी भी सरकारी स्कूल में चले जाइए, आप मध्यान्ह भोजन के समय दलित विद्यार्थियों की अलग से लगी हुई लाइन पाएंगे। खाना पकाने के लिए जो मुख्य रसोइया रखा जाता है, वह निचली जाति से नहीं होता।”

उन्होंने कहा कि सवर्ण बच्चों को निचली जाति के सहपाठियों से दूर रहने और स्कूल में अलग बैठने की यह घुट्टी इन बच्चों को इनके माता-पिता ही पिलाते हैं।

ट्रांस गिरी क्षेत्र के किसान आम तौर से छोटी जोत वाले हैं। यह दशकों से अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल करने के लिए लड़ रहे हैं।

2011 की जनसंख्या के मुताबिक हिमाचल की कुल आबादी साठ लाख अस्सी हजार थी। दलित इस कुल आबादी का एक चौथाई हैं। इनमें से नब्बे फीसद गांवों में रहते हैं।

शिमला से पचास किलोमीटर दूर स्थित चीखर सतलाई के उच्च माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य अश्विनी कुमार ठाकुर को उम्मीद है कि हालात बदलेंगे। उन्होंने कहा कि वे लोग जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानूनों के बारे में विद्यार्थियों को शिक्षित कर रहे हैं।

ठाकुर ने आईएएनएस से कहा, “हम बच्चों को समझा रहे हैं ताकि वे अपना व्यवहार बदल सकें। लेकिन, कई बार इस मामले में हमें गांव के बुजुर्गो से कड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ता है।”

उन्होंने कहा कि सरकार के शिक्षा अधिकारियों के निर्देशों के मुताबिक बच्चों से स्कूली गतिविधियों के दौरान रोल नंबर के हिसाब से बैठने के लिए कहा जाता है।

समाजशास्त्रियों का कहना है कि गांवों में मंदिरों, पानी के नलकों जैसी जगहों पर दलितों समेत तमाम वंचित तबकों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ऐसा भी होता है कि अगर दलित ने खाना बनाया है तो स्कूली बच्चे खाना खाने से इनकार कर देते हैं।

समाजशास्त्रियों का कहना है कि जातिगत भेदभाव की यह पुरातन परंपरा उन इलाकों में भी मौजूद है जहां देवी-देवाताओं को सजीव पूजे जाने का रिवाज है। यह देवी-देवता सजीव रूप से खेलते-कूदते हैं, नाराज होते हैं, दंड देते हैं। कुल्लू प्रशासन द्वारा शोध के बाद तैयार एक किताब में इस बारे में बताया गया है कि यह देवी-देवता आदेश देते हैं जिन्हें लोग मानते हैं। यह लोगों के साथ ‘रहते’ हैं। इसमें मददगार परंपरागत ओझा होते हैं जो लोगों और देवताओं के बीच संवाद के वाहक बनते हैं।

बिलासपुर के पास एक मंदिर में जातिगत भेदभाव के खिलाफ राज्य उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने वाले एस.आर.हरनोट का कहना है कि जातिवाद राज्य में गहरे तक धंसा हुआ है।

उन्होंने आईएएनएस से कहा कि देवताओं की यात्रा के दौरान वाद्य बजाने वाले बजंत्री निचली जातियों से संबंध रखते हैं। वे देवता की पालकी के साथ चल तो सकते हैं लेकिन उसे छू नहीं सकते, न ही गांव वालों के साथ पूजा में बैठ सकते हैं।

उन्होंने कहा कि एक स्वस्थ समाज के निर्माण से राज्य अपनी आंखें कैसे मूंद सकता है। इस दिशा में राज्य को पहल स्कूलों से करनी होगी जहां बच्चा समानता के मूल अधिकार का ककहरा पढ़ता है।

–आईएएनएस

समयधारा डेस्क