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नई दिल्ली (समयधारा) : आज कोरोना काल के बीच पर्यावरण दिवस शायद इतने दिनों बाद एक सुखद एहसास लेकर आया है l
देश के कई राज्यों से हिमालय की चोटियाँ नजर आ रही है l
मार्च 2014 में संयुक्त राष्ट्र की एक वैज्ञानिक समिति के प्रमुख ने चेतावनी दी है कि,
अगर ग्रीनहाउस गैसों का प्रदूषण कम नहीं किया गया तो जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव बेकाबू हो सकता है।
ग्रीनहाउस गैसें धरती की गर्मी को वायुमंडल में अवरुद्ध कर लेती हैं, जिससे वायुमंडल का तामपान बढ़ जाता है और ऋतुचक्र में बदलाव देखे जा रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति ने इस विषय पर 32 खंडों की एक रिपोर्ट जारी की है।
यह रिपोर्ट 2610 पृष्ठ की है।
समय की पुकार है कि अब कार्रवाई की जाए। (world-environment-day pollution-of-gases plastic-bags-effect-on-environment)
ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं किया गया, तो हालात बेकाबू हो जाएंगे।
नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों के दल द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यूरोप में जानलेवा लू, अमेरिका में दावानल,
आस्ट्रेलिया में भीषण सूखा और मोजाम्बिक, थाईलैंड और पाकिस्तान में प्रलयकारी बाढ़ जैसी,
5 जून-विश्व पर्यावरण दिवस : गैसों का प्रदूषण कम नहीं तो दुष्प्रभाव महाविनाशकारी
21वीं शताब्दी की आपदाओं ने यह दिखा दिया है कि मानवता के लिए मौसम का खतरा कितना बड़ा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अधिक बढ़ा तो खतरा और बढ़ जाएगा।
अभी हाल ही में उत्तर भारत के कई राज्यों के साथ-साथ हिमालय पर स्थित नेपाल में आया भूकंप l
उत्तराखण्ड में आई भीषण प्राकृतिक आपदा l
जापान के पिछले 140 सालों के इतिहास में आए सबसे भीषण 8.9 की तीव्रता वाले भूकंप की वजह से प्रशांत महासागर में आई सुनामी l
यूरोप में जानलेवा लू, अमेरिका में दावानल, आस्ट्रेलिया में भीषण सूखा और मोजाम्बिक, थाईलैंड और पाकिस्तान में प्रलयकारी बाढ़ l

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इन जैसी 21वीं शताब्दी की आपदाओं ने सारे विश्व का ध्यान इस अत्यन्त ही विनाशकारी समस्या की ओर आकर्षित किया है।
कुछ समय पूर्व पर्यावरण विज्ञान के पितामह जेम्स लवलौक ने चेतावनी दी थी कि…
यदि दुनिया के निवासियों ने एकजुट होकर पर्यावरण को बचाने का प्रभावशाली प्रयत्न नहीं किया तो जलवायु में भारी बदलाव के परिणामस्वरूप 21वीं सदी के अन्त तक छह अरब व्यक्ति मारे जाएंगे।
संसार के एक महान पर्यावरण विशेषज्ञ की इस भविष्यवाणी को मानव जाति को हलके से नहीं लेना चाहिए।
आज जब दक्षिण अमेरिका में जंगल कटते हैं तो उससे भारत का मानसून प्रभावित होता है।
इस प्रकार प्रकृति का कहर किसी देश की सीमाओं को नहीं जानती।
वह किसी धर्म किसी जाति व किसी देश व उसमें रहने वाले नागरिकों को पहचानती भी नहीं।
वास्तव में आज पूरे विश्व के जलवायु में होने वाले परिवर्तन मनुष्यों के द्वारा ही उत्पन्न किये गये हैं।
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परमात्मा द्वारा मानव को दिया अमूल्य वरदान है पृथ्वी, लेकिन चिरकाल से मानव उसका दोहन कर रहा है।
पेड़ों को काटकर, नाभिकीय यंत्रों का परीक्षण कर वह भयंकर जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण फैला रहा है।
जिस पृथ्वी का वातावरण कभी पूरे विश्व के लिए वरदान था आज वहीं अभिशाप बनता जा रहा है।
डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में दिसम्बर,
2010 में आयोजित सम्मेलन में दुनिया भर के 192 देशों से जुटे नेता जलवायु परिवर्तन से संबंधित किसी भी नियम को बनाने में सफल नहीं हुए थे।
इस सम्मेलन के तुरंत बाद आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ब्राउन ने कहा कि ‘यह तो बस एक पहला कदम है, इसे कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने से पहले बहुत से कार्य किये जाने हैं।
असली दिक्कत यह है कि सार्वभौमिक हित का मसला होते हुए भी यहा राष्ट्रीय हितों का विकट टकराव है।
हमारा मानना है कि कई दशकों से पर्यावरण बचाने के लिए माथापच्ची कर रही दुनिया अब अलग-अलग देशों के कानूनों से ऊब चुकी है।
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विश्व की कई जानी-मानी हस्तियों का मानना है कि अब अंतर्राष्ट्रीय अदालत बनाने का ही रास्ता बचा है, ताकि हमारी गलतियों की सजा अगली पीढ़ी को न झेलनी पड़ी।
अभी हाल ही में सैन फ्रांसिस्को स्थित गोल्डमैन एनवार्नमेंट फाउंडेशन द्वारा भारत के रमेश अग्रवाल को पर्यावरण के सबसे बड़े पुरस्कार ‘गोल्डमैन प्राइज’ से नवाजा गया है।
उन्होंने छत्तीसगढ़ में अंधाधुंध कोयला खनन से निपटने में ग्रामीणों ने मदद की और एक बड़ी कोयला परियोजना को बंद कराया।
रमेश अग्रवाल छत्तीसगढ़ में काम करते हैं और वह लोगों की मदद से एक बड़े प्रस्तावित कोयला खनन को बंद कराने में सफल रहे।
उनके साथ इस पुरस्कार को पाने वाले अन्य लोगों में पेरु, रूस, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया और अमरीका के 6 पर्यावरण कार्यकर्ता शामिल हैं।
इन सभी विजेताओं को प्रत्येक को पौने दो लाख डालर की राशि मिलेगी।
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इससे पहले ग्लोबल वार्मिग के खिलाफ लड़ाई के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के क्लाइमेट पैनल के राजेन्द्र पचौरी
और अमेरिका के पूर्व उप राष्ट्रपति अलगोर को शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
हमारी पूर्व पीढ़ियों ने तो हमारे भविष्य की चिंता की और प्रकृति की धरोहर को संजोकर रखा जबकि वर्तमान पीढ़ी प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन करने में लगी है।
एक बार गांधीजी ने दातुन मंगवाई।
किसी ने नीम की पूरी डाली तोड़कर उन्हें ला दिया।
यह देखकर गांधीजी उस व्यक्ति पर बहुत बिगड़े।
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उसे डांटते हुए उन्होंने कहा ‘जब छोटे से टुकड़े से मेरा काम चल सकता था तो पूरी डाली क्यों तोड़ी? यह न जाने कितने व्यक्तियों के उपयोग में आ सकती थी।’
गांधीजी की इस फटकार से हम सबको भी सीख लेनी चाहिए।
प्रकृति से हमें उतना ही लेना चाहिए जितने से हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है।
जलवायु परिवर्तन की समस्या पर अभी हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी कहा है कि,
जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर ऐसे बदलाव ला रहा है जिससे मानव जाति पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
उन्होंने अमेरिका के लोगों से स्वस्थ एवं बेहतर भविष्य के लिए पर्यावरण सुरक्षा का आग्रह किया।
वास्तव में आज मानव और प्रकृति का सह-संबंध सकारात्मक न होकर विध्वंसात्मक होता जा रहा है।
ऐसी स्थिति में पर्यावरण का प्रदूषण सिर्फ किसी राष्ट्र विशेष की निजी समस्या न होकर एक सार्वभौमिक चिंता का विषय बन गया है।
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पर्यावरण असंतुलन हर प्राणी को प्रभावित करता है।
इसलिए पर्यावरण असंतुलन पर अब केवल विचार-विमर्श के लिए बैठकें आयोजित नहीं करना है वरन अब उसके लिए ठोस पहल करने की आवश्यकता है,
अन्यथा बदलता जलवायु, गर्माती धरती और पिघलते ग्लेशियर जीवन के अस्तित्व को ही संकट में डाल देंगे।
अत: जरूरी हो जाता है कि विश्व का प्रत्येक नागरिक पर्यावरण समस्याओं के समाधान हेतु अपना-अपना योगदान दें।
विश्व भर में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले खतरों से निपटने के लिए विश्व के सभी देशों को एक मंच पर आकर तत्काल विश्व संसद,
विश्व सरकार तथा विश्व न्यायालय के गठन पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाना चाहिए।
इस विश्व संसद द्वारा विश्व के 2.4 अरब बच्चों के साथ ही आगे जन्म लेने वाली पीढ़ियों के सुरक्षित भविष्य के लिए जो भी नियम व कानून बनाए जाए,
उसे विश्व सरकार द्वारा प्रभावी ढंग से लागू किया जाए और यदि इन कानूनों का किसी देश द्वारा उल्लघंन किया जाए तो
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उस देश को विश्व न्यायालय द्वारा दण्डित करने का प्राविधान पूरी शक्ति के साथ लागू किया जाए।
इस प्रकार विश्व के 2.4 अरब बच्चों के साथ ही आगे जन्म लेने वाली पीढ़ियों को जलवायु परिवर्तन
जैसे महाविनाश से बचाने के लिए अति शीघ्र विश्व संसद, विश्व सरकार एवं विश्व न्यायालय का गठन नितान्त आवश्यक है l
( आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं।)
(इनपुट समयधारा के पुराने पन्नो से)
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