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Women’s Day special: सच्चा महिला सम्मान – करों उन्हें बंधनों से आजाद
किसी का दिल न दुखाने की कोशिश में नारी खुद को उन बंधनो में बांधती चली जाती है लेकिन...
womens day special mahila divas vishesh To empower women set free
नई दिल्ली (समयधारा) : जिंदगी में हर समय-हर वक्त कुछ न कुछ ऐसा घटित होता है l जो हमें झझकोर कर रख देता है l
यह घटना/कहानी हमें एक ऐसी सोच एक ऐसे दृष्टिकोण का अनुभव कराती है जिसकी हम सबको बहुत पहले ही जरुरत थी l
रात गहराती जा रही थी, लेकिन निधि अब तक घर नहीं आई थी।
उसका मोबाइल भी बंद आ रहा था।
संध्या की नज़र रह-रह कर घड़ी की ओर जा रही थी। आखिर उससे नहीं रहा गया तो
उसकी सहेलियों के फोन नम्बर ढूंढने के लिए परेशानी की हालत में उसने निधि की अलमारी खोली।
अलमारी खोलते ही सामने निधि के बचपन की तस्वीर नज़र आई, जिसमें उसके पापा दीपक ने उसे गोद में उठा रखा था।
दीपक से अलग होने के बाद संध्या ने दीपक की सारी फोटो जला डाली थी,
ये फ़ोटो न जाने कैसे निधि के पुराने रिपोर्ट कार्ड में रह गई थी, जिसे निधि ने अपनी अलमारी में चिपका लिया था।
“अकेले बेटी को संभालना आसान नहीं होता, देख लेना, एक दिन मेरे पास रोते हुए आओगी।”
बरसों पहले दीपक का कहा हुआ वाक्य न जाने क्यों उसके ज़ेहन में कौंध गया। उसकी घबराहट कई गुना बढ़ गई।
दीपक के साथ उसका रिश्ता हमेशा ही कड़वाहट से भरा रहा। शादी के कुछ ही समय बाद उसे अहसास हो गया था
कि दीपक के लिए पत्नी का अर्थ ज़रूरतें पूरी करने वाले और प्रताड़ना सहने वाले प्राणी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं थी।
वक़्त-बेवक़्त पत्नी के प्रति अपमानजनक व्यवहार उसके लिए आम बात थी।
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संध्या कभी-कभी नाराज होकर मायके चली जाती थी, लेकिन बेटी को पराया
धन समझने वाले माँ-बाप उसे हर बार समझा-बुझा कर वापस भेज देते।
संध्या समझ गई थी कि उसे अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी है। समाज की परवाह न करते हुए आखिरकार
उसने दीपक से तलाक ले लिया और अकेली किराए का घर लेकर बेटी को पालने लगी,
लेकिन उसका संघर्ष इतना आसान नहीं था। सबसे पहले तो उसका कम पढ़े-लिखे होना ही आड़े आया।
दृढ़ इच्छाशक्ति और कड़ी मेहनत से उसने खुद की दुकान खोली और बेटी का भविष्य संवारने में लग गई।
उसकी बेटी 18 साल की हो चुकी थी। उसने सोच लिया था कि सबसे पहले बेटी को आत्मनिर्भर बनाएगी।
उसने अपनी बेटी को गाड़ी चलाना सिखाया था। कॉलेज के बाद वह अपनी गाड़ी से कोचिंग क्लास में जाती थी,
जहाँ वो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करती थी।
उसने निधि की डायरी उठाई और उसमें लिखे नम्बरों पर फोन करने लगी।सभी ने यही बताया कि कोचिंग के बाद घर के लिए ही निकली थी।
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संध्या के हाथ पांव फूलने लगे।रोज़ तो शाम को सात बजे तक आ जाती थी लेकिन आज आठ बजने को आया।
निधि का कोई अता-पता नहीं था। अकेले इतने सालों में उसने बड़ी-बड़ी परेशानियों का सामना अकेले किया है
लेकिन बात जब बेटी की है तो वह खुद को बेबस पा रही है। आखिर कहाँ जाए उसे ढूंढने।
गाड़ी भी तो निधि लेकर गई है। रात के अंधियारे में अकेली ही चल दी उसे ढूंढने।
2 कदम चलते ही अकेली औरत को घूरती हुई अनेक निगाहें उसका पीछा करने लगीं।
खुद को तो वह इन नज़रों से बचा लेगी लेकिन निधि… एक बार फिर उसका हृदय काँप उठा।
तभी अचानक उसके मोबाइल फोन की घंटी बज उठी। “हेलो, मैं इंस्पेक्टर दत्ता बोल रहा हूँ।
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निधि आपकी ही बेटी है?” इंस्पेक्टर की आवाज सुनकर उसकी आवाज गले में ही अटक गई।
“जी..जी..” घबराहट में उसके मुंह से इतना ही निकला। “आप फौरन पुलिस स्टेशन पहुंच जाइये।”
इतना बोलकर फोन कट गया। न जाने कितनी ही आशंकाओं से संध्या काँप उठी।
लड़कियों के साथ अपराध की खबरों के न जाने कितने न्यूज़ चैनल एक साथ उसके दिमाग में चलने लगे।
उसने जल्दी से ऑटोरिक्शा लिया और पुलिस स्टेशन पहुंच गई।
पुलिस स्टेशन के बाहर उसकी गाड़ी खड़ी थी जिसका सामने का शीशा टूटा हुआ था।
वह लगभग भागते हुए अंदर पहुंची। सामने कुर्सी पर आराम से बैठी निधि को देखकर उसकी जान में जान आई।
“आपकी बेटी ने आज अपनी बहादुरी से 2 बदमाशों को पकड़वाया है।
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कल महिला दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में उसे प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जाएगा।”
इंस्पेक्टर की बात सुनकर वह क्षण भर ठिठक गई, उसने गर्व से बेटी की ओर देखा।
“मम्मा, अब घर चलते हैं। रास्ते में सारी बात बता दूँगी।” निधि के कहने पर इंस्पेक्टर ने भी जाने की अनुमति देते हुए कहा,
“एहतियात के तौर पर हमारा एक सिपाही आपके साथ-साथ जाएगा।”
रास्ते में निधि ने उसे बताया कि कैसे उसे अकेली जाते हुए देखकर दो बदमाशों ने
उसकी गाड़ी पर पत्थर मारकर उसकी गाड़ी रुकवाई और कैसे उसका विरोध करने के लिए गाड़ी रोकने पर
ज़बरदस्ती उसकी गाड़ी में बैठ गए।
बहादुर निधि ने फिर सीधा पुलिस थाने लाकर ही गाड़ी रोकी।
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आज गाड़ी चलाती हुई बेटी के बगल में बैठकर उसे लग रहा था कि सचमुच नारी कमज़ोर नहीं होती बल्कि
उसको आत्मनिर्भर न बनाकर एक सोची समझी साजिश के तहत उसे कमजोर बना दिया जाता है।
मर्यादा, सभ्यता, संस्कृति के नाम पर अनेक बंधनो से उसे जकड़ दिया जाता है।
किसी का दिल न दुखाने की कोशिश में नारी खुद को उन बंधनो में बांधती चली जाती है
लेकिन जब वह इन बन्धनों की परवाह न करते हुए कदम बढ़ाती है तो उसे कोई रोक नहीं सकता।
उसने अपनी बेटी पर व्यर्थ के बंधन नहीं बांधे, इसलिए उसकी बेटी निडर है।
कल महिला दिवस है। वह सोच में पड़ गई, “क्या उसकी तरह और माएँ भी
अपनी बेटियों को सशक्त बनाने के लिए बंधनों की परवाह न करना सिखाएंगी?”
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